‘बातचीत’ शीर्षक निबंध का सारांश लिखिए।
उत्तर-‘बातचीत’ शीर्षक निबंध के निबंधकार बालकृष्ण भट्ट (1844-1914) हैं। आधुनिक हिन्दी गद्य के निर्माताओं में भट्ट जी का नाम आता है। ‘बातचीत’ शीर्षक निबंध उनके निबंधकार व्यक्तित्व का प्रतिनिधित्व करता है।
अनेक प्रकार की शक्तियाँ जो वरदान की भाँति ईश्वर ने मनुष्य को दी हैं, उनमें वाक्शक्ति भी एक है। वाक्शक्ति मनुष्यों में न होती तो हम गूँगे होते। सब लोग लुंज-पुंज से हो मानो कोने में बैठा दिए गए होते और जो कुछ सुख-दुःख का अनुभव हम अपनी दूसरी दूसरी इंद्रियों के द्वारा करते, उसे अवाक् होने के कारण, आपस में एक-दूसरे से कुछ न कह सुन सकते। इस वाक्रशक्ति के अनेक फायदों में स्पीच वक्तृता और बातचीत दोनों हैं। किन्तु स्पीच से बातचीत का ढंग ही निराला है।
स्पीच का उद्देश्य सुननेवालों के मन में जोश और उत्साह पैदा कर देना है। घरेलू बातचीत मन रमाने का ढंग है। उसमें स्पीच की संजीदगी बेकदर हो धक्के खाती फिरती है।
बातचीत की सीमा दो से लेकर वहाँ तक रखी जा सकती है, जहाँ तक उसकी जमात मीटिंग या सभा न समझ ली जाए। एडीसन का मत है कि असल बातचीत सिर्फ दो व्यक्तियों में हो सकती है, जिसका तात्पर्य यह हुआ कि जब दो आदमी होते हैं तभी अपना दिल एक दूसरे के सामने खोलते हैं। जब तीन हुए वह दो की बात कोसों दूर हो गई। कहा भी गया है कि छह कोनों में पड़ी बात खुल जाती है। दूसरे यह कि किसी तीसरे आदमी के आ जाते ही या तो वे दोनों अपनी बातचीत से निरस्त हो बैठेंगे या उसे निपट मूर्ख अज्ञानी समझ बनाने लगेंगे।
तीन आदमियों में बातचीत का त्रिकोण बन जाता है। तीनों चित्त मानों तीन कोण हैं और तीनों की मनोवृत्ति के प्रसरण की धारा मानों उस त्रिकोण की तीन रेखाएँ हैं। गुप-चुप अकसर उन तीनों में परस्पर होता ही है। जो बातचीत तीन में की गई, वह मानों अगूंठी में नग-सी जड़ जाती है।
जब चार आदमी हुए तब बेतकल्लुफी को बिलकुल स्थान नहीं रहता। खुल के बातें नहीं होंगी। जो कुछ बातचीत की जाएगी वह ‘फार्मेलिटी’ गौरव और संजीदगी के लच्छे में सनी हुई होगी।

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चार से अधिक की बातचीत तो केवल राम-रमौवल कहलाएगी। उसे हम संलाप नहीं कह सकते। दो बुढ़ियों की बातचीत का मुख्य प्रकरण, बहु-बेटीवाली हुई तो, अपनी बहुओं या बेटों का गिला शिकवा होगा। वे बिरादराने की रमरसरा छेड़ बैठती हैं। कभी-कभी बात करते-करते अंत में खोढ़े दाँत निकाल लड़ने लगेंगी।
सबसे उत्तम प्रकार बातचीत करने का यही है कि हम वह शक्ति अपने आप में पैदा कर सकें कि अपने आप बात कर लिया करें। स्वअलाप कर लिया करें। अंतरालाप कर लिया करें। हमारी भीतरी मनोवृत्ति प्रतिक्षण नए-नए ढंग दिखाया करती है। अवाक् रहकर अपने बातचीत करने का यह साधन यावत् साधनों का मूल है, शक्ति परम पूज्य मंदिर हैं, परमार्थ का एक सोपान है।
जयप्रकाश नारायण कम्युनिस्ट पार्टी में क्यों नहीं शामिल हुए? उत्तर-अमेरिका प्रवास के दौरान जे०पी० घोर कम्युनिस्ट थे। वह लेनिन और ट्राटस्की का समय था। 1924 में लेनिन मरे थे। 1924 में ही जे०पी० मार्क्सवादी बने थे। मार्क्सवाद के सभी ग्रंथ उन्होंने पढ़ डाले। रात को एक रशियन टेलर के घर रोज क्लास लेते थे। वहाँ से जब वे लौटे तो घोर कम्युनिस्ट थे। लेकिन वे राष्ट्रहित में अंग्रेजों को भगाने के लिए कांग्रेस में शामिल हुए। कम्युनिस्ट होकर भी वे अपने को कांग्रेस से अलग-थलग नहीं रख सके। आजादी की लड़ाई में भाग लेना था।
2. बँधी हुई मुट्ठियों का क्या लक्ष्य है? उत्तर-जनता की सरकार के खिलाफ और शोषितों की शोषकों के खिलाफ अब मुट्ठी बंध चुकी है। ये जन मुट्ठी बाँधकर निर्णय ले चुके हैं कि शोषकों को इस धरती से हम मार भगाएँगे। इनका लक्ष्य निर्धारित हो चुका है। सावधान, सावधान पूँजीपतियों; सावधान।